नेहरू के समय भी इसी संकट से जूझ रही थी कांग्रेस...

खास रिपोर्ट---रज़िया बानो खान 

 



 

ऐसा नही के कांग्रेस पार्टी अपने वजूद की लड़ाई भाजपा के मज़बूत होने के बाद से लड़ रही है। जानकार बताते हैं कि आज़ादी के कुछ साल बाद ही यानी 1952 में भी कांग्रेस पार्टी का यही आलम था।इस पार्टी के लिए लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि ये पार्टी अब खत्म हो चुकी है कहा तो ये भी जाता है कि उस वक़्त खुद गांधी जी ने इसको खत्म करने की बात की थी।लेकिन नेहरू नही माने और उन्होंने पार्टी को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया और वो उसमे सफल भी हुए।

 


 

कांग्रेस पार्टी में नेहरू,इंदिरा और राजीव गांधी के बाद ऐसा कोई नेता नही दिखा जिसकी पकड़ जनता तक सीधी हो।ये वो चेहरे थे जिनके लिए पार्टी कार्यकर्ता और जनता दोनों अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते थे।लेकिन आज कल सत्ता के लोभ ने कांग्रेस को सिर्फ सत्ता की राजनीती करने तक ही सीमित कर दिया है जिसका खामियाजा कांग्रेस पार्टी भुगत रही है।आप खुद ही देखिए राहुल और प्रियंका ने यूपी में रैलियां की,.....तो उनको कितना जन समर्थन मिला हज़ारों की भीड़ उनके कार्यक्रम में जुटती दिखाई देती थी।लेकिन उस भीड़ को कांग्रेस पार्टी अपने वोट में बदलने में कामयाब नही हो पाई जिसकी वजह रही के वो सीधे तौर पर जनता से काफी दूर रही वो उनके नब्ज़ को समझने में नाकाम रही।

 

पार्टी की विचारधारा की बात करने वाले राहुल गांधी ने ना ही अपने विचारों को अच्छी तरह प्रस्तुत किया और ना ही वो जनता की भावनाओ को समझ सके। इसमे दोष उनका भी नही क्योंकि उन्होंने जिसको यूपी की कमान सौंपी थी वो खुद पार्टी का प्रचार करने में नाकाम साबित हुआ।जिसका नतीजा 80 में से सिर्फ एक सीट ही कांग्रेस के खाते में आई।कांग्रेस पार्टी को अगर खुद को यूपी में मज़बूत करना है तो पहले उसे ये निश्चित करना होगा कि कौन है। जो पार्टी हित को समर्पित है कौन ऐसा चेहरा है जो यूपी की सियासत से भली भांति परिचित है और कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए क्या करना चाहिए। इन तमाम बातों पर अगर कांग्रेस गौर करे तो यकीनन नेहरू की तरह ही पार्टी एक बार फिर अपना मोकाम हासिल करने में कामयाब होगी।

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